...

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गिरहे
कुछ अनसुलझी गिरहे खोलना चाहता हुँ
मै अब दिल की दास्ताँ बोलना चाहता हुँ !

तुम से फिर उस शजऱ तले मिलना चाहता हुँ
वजह तुम्हारे रुसवाई की जानना चाहता हुँ !

चला गया है जो छोडकर साथ बिच राह
उस हमराह का हाथ फिर थामना चाहता हुँ !

चल रही है पुरजोर सबा-ए-मुहब्बत फिजाँ मे
उन बाहों के झुले मे फिर झूमना चाहता हुँ !

बदल भी जाए अब ये मौसम खिजाँ का
सुर्ख गुलाब सा अब मै महकना चाहता हुँ !

रिश्ता जो टुट गया अना की वजहा से
इश्क के धागों को फिर जोडना चाहता हुँ !

बहुत देखे है चेहरे फरेबी इस दुनिया मे
जो दिखा दे सच्चाई वो आइना चाहता हुँ !

उतर चुका है नशा अब उनकी मुहब्बत का
चलो "संदीप" मयखाने मै बहकना चाहता हुँ!
© संदीप देशमुख