...

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अंतरंगी चोला
पाखंड की है परिपाटी,
सभ्यता खड़ी थी दूर सिमटी।
भेद न किसी ने खोला,
पहनें मिलें अंतरंगी सब चोला।

मंझधार में देखे फ़ंसे,
जहान देखकर केवल हंसे।
सहानुभूति नाममात्र,
बनावटीपन की दौड़ लेशमात्र।

सीख करना पहचान,
रह मत बन करके नादान।
आधिक्य मिलें शातिर,
हो न क़ुर्बान किसी की ख़ातिर।

छलावे से संभलकर,
सीख जीना अपने दम पर।
ढोंग का कर आभार,
अवसरों का ये बनते हैं आधार।

© Navneet Gill