...

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कहां थे अब तक?
बसंत की इस धूप में बैठी सोच रही हूं
कि उम्र की दोपहरी ढलान पर है
और
कितने बसंत बिना उत्साह के बीत गए ,
कितने ‌फाग बस तन को अबीर लगाकर चले गए,
मन को गुलाल का एक टीका भी न लगा पाए।
कितनी दीपावलियां बस दिल जला,
दीप जलाने की औपचारिकता भर हुई।

कितने सावन बरस चुके हैं?
तन मन की व्यथा बहाने की कोशिश में
अकेले भीगते हुए।
घेवर और फिरनी बेस्वाद लगे।
तीज के झूले झूलने और हाथों में
मेहंदी रचाने का उछाह न आया।

पूर्णिमा के हर चांद की तरह
शरद के चांद ने भी लुभाया।
पर उसमें किसी का तसव्वुर कभी न आया।
सोलह कलाओं से उसने चांदनी तो बरसाई
पर उसमें किसी के प्रेम की शीतलता को
न पाया।

अब जब इतने बसंत, इतने सावन,
इतनी चांद रातें बीत चुकी हैं।
तुम न जाने कहां से दिल में आए हो ?

मैंने कोई खिड़की भी न बनाई,
कि कोई मन में न कूद पाए।
कोई दरवाजा भी न रखा कि
तोड़कर कोई अंदर न आ जाए।

मैंने तो चारों तरफ सिर्फ दीवार उठाई थी।
तुमने कैसे इसमें दरार बनाई ?
तुम कोई चोर थे, तुमने मन में सेंध लगाई।
नहीं, तुम पिछले जन्म के कोई दुश्मन थे।
दुश्मनी निभाने, मुझे सताने इस जन्म
मेरे प्रेमी बनकर चले आए।

और देखो तो कब आए हो?
जब चालीस पार होने को आए हैं।
यौवन ढलान पर है,
सांसें चढ़ान पर हैं ,
बालों में चांदी उग आई है।
(गुलज़ार साहब की कविता से ये पंक्ति चुराई है)
गालों के गुलाब झड़ने लगे हैं।

कहां थे तुम अब तक ?





© khak_@mbalvi