...

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बड़ी हुई जो सोच
बड़ी हुई जो सोच
बढ़ने लगी अप्रोच

टेढ़ा मेंढ़ा मत चले
देख आयेगी मोच

बाहर कुछ भी हैं नहीं
भीतर खुद को खोज

बह जाए न सागर गम का
अपनें आंसू पोंछ

सच की बाहें थाम ली
न गले लगा अफ़सोस

आईना मुझसे कह रहा
क्यूं मिलता हैं रोज़

© पं.रोहित शर्मा