...

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कुदरत के नज़ारे
बैठ जाती हूं कभी- कभी ,
पुराने बरगद की मीठी छांव में।
कि शायद बीते वक्त की,
यादें ही लौट आएं ।
चुभते हैं टूटे गुलाब के,
कांटे जब नंगे पांव में।
तो सोचती हूं काश हर गम में,
साथ निभाने के वादे ही लौट आएं।
बरगद की शाख पर बैठी,
कोकिला मीठे गीत सुनाती है।
जैसे घुलता हो कानों में रस,
अपनेपन की परवाज़ का।
मधुर संगीत से बसन्त को,
कोयल इस कदर बुलाती है।
जैसे गीत निशानी हो इसका,
सावन के आगाज़ का।
मीठी मीठी ठंडी हवाएं,
छू जाती हैं दिल नादान को।
ख्वाबों भरी रातें जगाती हैं,
दिल में नईं उमंगों को।
दिल खोया रहता है ख्वाबों में,
ख़बर न जग की इस अनजान को।
बहा ले जाता हैं संग अपने,
हवाएं ख्वाबों भरी तरंगों को।
कहीं पपीहा पीहू-पीहू बोले,
कहीं मोर पंख फैलाए है।
हर तरफ कुदरत के रंगों की,
मीठी-मीठी सी बहार है।
मुस्कुराती कुदरत के रंगों में,
जैसे अम्बर भी मुस्कुराए है।
हर कण हर ज़र्रे में होता,
जैसे खुदा का दीदार है।
वाह खुदा! क्या तेरी खुदाई है,
बेअंत है तू इसका रचयता।
तरह- तरह के जीव बनाकर,
डाली उनमें जान है।
हर ज़र्रे हर कण - कण में ,
रूहानियत और मस्ती तू है भरता।
मगर तेरे इस खेल-रहस्य से,
सारी कायनात अनजान है।
धन्यवाद तेरा ए परवरदिगार!
तूने बनाया हमें इस काबिल है।
ए करुणासागर! हम काबिल बने,
सारी रहमत तेरी करुणा की है।
तेरी रची इस सृष्टि में,
जो आज हम भी शामिल हैं।
तू दयावान ए दयालु पिता,
हमें जिंदगानी तुमने दी है।