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कुदरत के नज़ारे
बैठ जाती हूं कभी- कभी ,
पुराने बरगद की मीठी छांव में।
कि शायद बीते वक्त की,
यादें ही लौट आएं ।
चुभते हैं टूटे गुलाब के,
कांटे जब नंगे पांव में।
तो सोचती हूं काश हर गम में,
साथ निभाने के वादे ही लौट आएं।
बरगद की शाख पर बैठी,
कोकिला मीठे गीत सुनाती है।
जैसे घुलता हो कानों में रस,
अपनेपन की परवाज़ का।
मधुर संगीत से बसन्त को,
कोयल इस कदर बुलाती है।
जैसे गीत निशानी हो इसका,
सावन के आगाज़ का।
मीठी मीठी ठंडी हवाएं,
छू जाती हैं दिल नादान को।
ख्वाबों भरी रातें जगाती हैं,
दिल में नईं उमंगों को।
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