...

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जिंदगी...
ज़िंदगी मुक़म्मिल
तो न तेरी है...
न मेरी है...

जितनी भी
हँस के गुज़र जाए
अच्छी है...

नहीं तो है खाक़-मिट्टी
सब...
जैसे रेत की ढ़ेरी है।।

है उसका गुमान क्या...
और गुरु़र क्या...
जो खुद के हाथ न कभी रहा...

रहा न हिज़्र... न वस्ल...
महज़ दो शख्सियतों का
मुआमला...

क़िस्मतों के हाथ बिकती
ज़रा खट्टी,
जरा मीठी सी ये बेरी है।।

दर्द में जो तू मुस्करा दे
हैरान... रह जाए
सारी ख़ुदाई...

नीम है भले स्वाद इसका
मग़र लगती...
भली बहुतेरी है...।।।