जिंदगी...
ज़िंदगी मुक़म्मिल
तो न तेरी है...
न मेरी है...
जितनी भी
हँस के गुज़र जाए
अच्छी है...
नहीं तो है खाक़-मिट्टी
सब...
जैसे रेत की ढ़ेरी है।।
है उसका गुमान क्या...
और गुरु़र...
तो न तेरी है...
न मेरी है...
जितनी भी
हँस के गुज़र जाए
अच्छी है...
नहीं तो है खाक़-मिट्टी
सब...
जैसे रेत की ढ़ेरी है।।
है उसका गुमान क्या...
और गुरु़र...