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मेरा श्रृंगार:मेरी कविताएँ
एक रात कुछ यूं हुआ
उनींदी आँखे नींद को तैयार थीं
इसी क्रम में..
आँखें कब नींद से प्रेम कर बैठीं
कुछ याद नहीं!!

देखती हूँ कुछ ऐसा
कुछ अनूठे गहने थे,
जो आतुर थे मेरी सुंदरता बढ़ाने के लिए!!

कुछ क्षणिकाएँ पड़ी थीं
जो ललाट पर बिंदिया बन
सुशोभित करने लगीं!!

चली आ रही थीं कुछ गजलें
मद मस्त अंदाज में ..इठलाती..
मेरे गले लग नौलखा हार बन गईं!!
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