...

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नढी यहॉ पर
नदी यहाॅ पर मुड़ती है
फिर चलती ही जाती है
चलते - चलते सागर को
आखिर मे वह पाती है।

मिलती लंबी राह उसे
देती है सबको पानी
सींच - सींचकर खेतों को
फसल बनाती है धानी।

कहीं करारों में छिपती
मैदानों में आती है
खेल खेलती लुका- छिपी
बिलकुल ही खो जाती है।

सागर में मिल जाने पर
फिर बन जाती है सागर
तब तक चलती रहती है
रात और दिन धरती पर।