नढी यहॉ पर
नदी यहाॅ पर मुड़ती है
फिर चलती ही जाती है
चलते - चलते सागर को
आखिर मे वह पाती है।
मिलती लंबी राह उसे
देती है सबको पानी
सींच - सींचकर खेतों को
फसल बनाती है धानी।
कहीं करारों में छिपती
मैदानों में आती है
खेल खेलती लुका- छिपी
बिलकुल ही खो जाती है।
सागर में मिल जाने पर
फिर बन जाती है सागर
तब तक चलती रहती है
रात और दिन धरती पर।
फिर चलती ही जाती है
चलते - चलते सागर को
आखिर मे वह पाती है।
मिलती लंबी राह उसे
देती है सबको पानी
सींच - सींचकर खेतों को
फसल बनाती है धानी।
कहीं करारों में छिपती
मैदानों में आती है
खेल खेलती लुका- छिपी
बिलकुल ही खो जाती है।
सागर में मिल जाने पर
फिर बन जाती है सागर
तब तक चलती रहती है
रात और दिन धरती पर।