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पिता की गुड़िया

© Nand Gopal Agnihotri
पिता की गुड़िया, माता की चिरैया -
आई है सबकुछ छोड़कर अपना

वह घर सपना, यह घर अपना ।
इसे माटी का पुतला न समझना,
बेटी है किसी की बेटी ही समझना ।
अपनापन पाएगी, तो अपना सा रहेगी ।
आहिस्ता ही हो, क्रिया की प्रतिक्रिया तहोती ही है ।
हवा मिले तो चिनगारी भी तेज लौ से जलती है ।
आग यूंही तो नहीं लगती,
धोखे से या जानबूझकर लगाई जाती है ।
बेवजह आग बदनाम होती है,
कि सबकुछ जला डाला ।
फिर होश आते ही सोचना पड़ता है,
हाय, हमने क्या कर डाला ।
तबतक सबकुछ स्वाहा हो चुका होता है ।