गज़ल
✍️ग़ज़ल
रुह तक तेरे मैं आना चाहता हूं
इश्क़ भी मैं सुफियाना चाहता हूं
है मुझे ग़ालिब से भी इश्क़ लेकिन
मीर को मैं गुनगुनाना चाहता हूं
दस्तरस* में एक लम्हा भी नहीं है
क्या अजब है मैं जमाना चाहता हूं
तेरे चहरे के हंसी कुछ रंग लेकर
फूल पे तितली बनाना...
रुह तक तेरे मैं आना चाहता हूं
इश्क़ भी मैं सुफियाना चाहता हूं
है मुझे ग़ालिब से भी इश्क़ लेकिन
मीर को मैं गुनगुनाना चाहता हूं
दस्तरस* में एक लम्हा भी नहीं है
क्या अजब है मैं जमाना चाहता हूं
तेरे चहरे के हंसी कुछ रंग लेकर
फूल पे तितली बनाना...