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जीवन की शाम

© Nand Gopal Agnihotri
#हिंदी साहित्य दर्पण
#शीर्षक जीवन की शाम
स्वरचित - नन्द गोपाल अग्निहोत्री
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शाम ढली तब समझ में आया,
व्यर्थ ही हमनें दिवस गंवाया ।
मृगतृष्णा के पीछे भागा,
खाली हाथ ही वापस आया ।
धन-दौलत और रिश्ते-नाते,
सारे जग की झूठी माया ।
ईर्ष्या द्वेष और दम्भ पाल के,
अंत में खुद को अकेले पाया ।
छल बल कल से जो भी कमाया,
वो औरों के काम ही आया ।
जीवन भर जो भार उठाया,
अंत में खुद को भार ही पाया ।
कर्म वृक्ष जो बोए अबतक,
फल उसका ही चखते पाया ।
शाम ढली तब समझ में आया,
व्यर्थ ही हमनें दिवस गंवाया ।