तुम्हारा सघन प्रेम..छांव रहित..
इस सघन वन की तरह है तुम्हारा प्रेम,
कहां से शुरु होकर कहां खत्म होता है,कुछ समझ नहीं आता..।
छांव नहीं मिलती फिर भी इसे..
लेकिन इसकी सघतना में भी ये मन तपता है धूप से।
ना सूरज की रौशनी मिलती है जड़ों को..ना खाद भरपूर,
जो ज़रूरी है,क्षीणता से बचाए रखने के लिए..!
देते रहो इसको भी थोड़ी सी गर्माहट
बहुत सर्दी है,देखना कहीं ठंडे ना पड़ जायें।
साँप सीढ़ी की तरह चढ़ता है..फिर..
धड़ाम से मुंह के बल गिरा देता है 1 मिनट बाद।
कौन सी शाखा...
कहां से शुरु होकर कहां खत्म होता है,कुछ समझ नहीं आता..।
छांव नहीं मिलती फिर भी इसे..
लेकिन इसकी सघतना में भी ये मन तपता है धूप से।
ना सूरज की रौशनी मिलती है जड़ों को..ना खाद भरपूर,
जो ज़रूरी है,क्षीणता से बचाए रखने के लिए..!
देते रहो इसको भी थोड़ी सी गर्माहट
बहुत सर्दी है,देखना कहीं ठंडे ना पड़ जायें।
साँप सीढ़ी की तरह चढ़ता है..फिर..
धड़ाम से मुंह के बल गिरा देता है 1 मिनट बाद।
कौन सी शाखा...