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खुली किताब*
खुली किताब कहानी यह आज के दौर की
कहते भी है सौ सुनार,तो एक लुहार की
शब्द मेरे तीखे जो चुभेगे तीर की भांति
मगर कड़वी सच्चाई लिपटी है जंजीर की भांति!!

बन बैठी है आज स्त्री खुली किताब
देह दिखाने की होड़ मे किया बस्त्र त्याग
सब दोष नहीं इन चंचल नजरों का
कुछ तो हरकत हुई जो पन्ना बना खबरों का!!

आधुनिकता मे वही जा रही कामवासना की नदी
निर्वस्त्र हो रही स्त्री जो थी आभूषणो से लदी
ये दौर है अलग मै इसकी भी खबर रखता हूँ
पर मर्यादा की लकीरें मिट गई ये भी देखता हूँ!!

हो गई बो स्वतंत्र यह आज उसका मानना है
इन आँखों का क्या दोष जिनका काम ही ताड़ना है
माना की नजरों से हुई ख़त्ता ये सोच का दोष है
सीता से सूर्पनखा बन बैठी हो फिर क़्यू रोष है!!

यह किसी का गुनाह नहीं जो देखा खुली किताब को खुद पिलाकर कहती हो की हाथ लगाया शराब को
जो किताब काम ना आए अक्सर वही खुली होती है
गीता जैसे ग्रंथ अलमारी मे ढककर सिली होती है!!

मेरे शब्द किसी भावना को ठेस पहुँचाना नहीं है
मेरा मकसद पुरुष जाती को भी ऊँचा दिखाना नहीं है
एक स्त्री मेरी माँ बहन है इसलिए मै आज हताश हूँ
समझना तो स्त्री को है मै तो करवा रहा अहसास हूँ!!
- सुरेंद्र राठौर