ख़्वाब की शीशी
एक ख़्वाब की शीशी में,
रतजगा भरा जब,
मालूम था पशोपेश रहेगी,
मीँचने की पुडिया में,
जगना भरा तब,
जानते थे खीँचातानी चलेगी,
दो ऊँगलियों के बीच,
जब फँसाई थी ऊँगली,
लगा था उलझनें बढ़ेंगी,
मुश्किल था न ये सब
तो कोशिशें पुरज़ोर थी,
पर ख़्वाब की शीशी तो
विषैली थी,
रतजगे को उसने पत्थर बनाया,
पुडिया खुल गई, जगना सो गया,
ऊँगलियाँ अलसाई सी,
उसमें बस छूटी
छाप नज़र आई थी।
©jignaa___
रतजगा भरा जब,
मालूम था पशोपेश रहेगी,
मीँचने की पुडिया में,
जगना भरा तब,
जानते थे खीँचातानी चलेगी,
दो ऊँगलियों के बीच,
जब फँसाई थी ऊँगली,
लगा था उलझनें बढ़ेंगी,
मुश्किल था न ये सब
तो कोशिशें पुरज़ोर थी,
पर ख़्वाब की शीशी तो
विषैली थी,
रतजगे को उसने पत्थर बनाया,
पुडिया खुल गई, जगना सो गया,
ऊँगलियाँ अलसाई सी,
उसमें बस छूटी
छाप नज़र आई थी।
©jignaa___