...

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ग़ज़ल... कुबूल आँख़ें कुबूल आँख़ें
बह़र _:- 12122,12122

जहाँ ये कहता हैं सूल आँख़ें
हैं जिस्म का एक फूल आँख़ें

ज़रा ऐ लोगों इन्हें संभालो
पकड़ रही हैं ये तूल आँख़ें

लबों ने होलें से फिर कहाँ ये
कुबूल आँख़ें कुबूल आँख़ें

दुआ में मैंने जो रब से मांगीं
तो हो गई ये हुसूल आँख़ें

तुम्हारे दिल पे ऐ 'मुंतज़िर' फिर
ये हो रही है नुज़ूल आँख़ें