...

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वो ख्वाब मांगने लगी
मेरी ज़िन्दगी सवाल थी, वो जवाब मांगने लगी
मैं रात भर सोता कैसे, वो ख्वाब मांगने लगी

हम ज़रा लड़खड़ाए क्या, ठोकर खिताब मांगने लगी
मेरी डायरी के दो पन्ने पढ़कर, वो पूरी किताब मांगने लगी

तुम्हारी दिल्लगी की खातिर बता तो मैं वैसे भी देता
न जाने क्यूं तुम सारे राज़, सरेआम मांगने लगी

औरत ने ज़रा उड़ने की क्या सोंची, दुनिया पंखों का हिसाब मांगने लगी
बोली, बावली चांदनी की हिमाकत तो देखो, पूरा आसमान मांगने लगी

बूढ़ा बाप महीनों करता रहा तैयारियां लाज बचाने को,
जो लोग अपने घर दो रंग की सब्ज़ी भी नहीं खाते
उनकी बारात, आते ही, नए इंतजाम मांगने लगी

अरसे बाद लौटा मैं अपने गांव तो गुम सा गया
मेरी याददाश्त कुछ पुराने निशान मांगने लगी

पेड़ तो कटवा दिया मैंने घोंसलों सहित, कब का
गर्मी आयी तो चौखट मुझसे टपके आम मांगने लगी

गांव में पहली दफा एक रोड क्या बनी
कच्ची सड़क बारिश से इंतिक़ाम मांगने लगी

कल दिन भर नोट कमा, जब देर रात घर आया
मेरी थकावट मुझसे फिर पुरानी शाम मांगने लगी

बहकते कदमों से चलता रहा मैं तो सारी ही उम्र
संभला तब, जब बोतल मुझसे छलका जाम मांगने लगी ।
© Adarsh Bhardwaj


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