...

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श्रृंगार करूं.....
तुम तो सादगी की उपमा हो
मैं शब्दों से कैसे अलंकृत करूं ?।

तुम तो सौंदर्य की रसधार हो
मैं विस्तृत से कैसे श्रृंगार करूं ?।

तुम तो पायल की झंकृत हो
मैं कलम से कैसे वृतांत करूं ?।

तुम तो केशों की वृक्षलता हो
मैं कगीं से कैसे शृंखला करूं ?।

तुम तो चेहरे की मुस्कान हो
मैं काव्य से कैसे गंभीर करूं ?।

तुम तो नैनों का काजल हो
मैं स्याही से कैसे पूर्ण करूं ?।

तुम तो अधरों की मिठास हो
मैं चुंबन से कैसे स्पर्श करूं ?।

तुम तो आलिंगन की ठंडक हो
मैं सुकून से कैसे पहल करूं ?।

तुम तो वाणी का मृदंग हो
मैं कंठ से कैसे खास करूं ?।

तुम तो रक्त का संचार हो
मैं स्पंदन से कैसे जांच करूं ?।

तुम तो कानों का झुमका हो
मैं हवा से कैसे आश करूं ?।

तुम तो स्वप्नों का महल को
मैं मिथ्या से कैसे हास्य करूं ?।

तुम तो दया का सागर हो
मैं व्यथा से कैसे रूदन करूं ?।

तुम तो विश्वास का जल हो
मैं प्यास से कैसे व्यंग्य करूं ?।

तुम तो समर्पण की नदी हो
मैं तट से कैसे नाव करूं ?।

तुम तो करुणा का धाम हो
मैं श्रद्धा से कैसे पूजा करूं ?।

तुम तो आत्मा का दर्पण हो
मैं शुद्धि से कैसे प्राप्त करूं ?।

तुम तो कुंडली का भाग्य हो
मैं युक्ति से कैसे बात करूं ?।

तुम तो भीतर का भाव हो
मैं स्वयं से कैसे विलग करूं ?।

तुम तो स्नेह का प्रवाह हो
मैं हृदय से कैसे ग्रहण करूं ?।

तुम तो तन का लावण्य हो
मैं मन से कैसे मोहित करूं ?।

तुम तो पुष्प की सुगंध हो
मैं श्वास से कैसे नाक करूं ?।

तुम तो पगडंडी का रास्ता हो
मैं पैदल से कैसे माप करूं ?।

तुम तो कल्पना का शहर हो
मैं वियोग से कैसे दूर करूं ?।

तुम तो जीवन का आधार हो
मैं संयोग से कैसे पास करूं ?।

- शेखर खराड़ी
तिथि-२४/७/२०२२, जुलाई
© -© Shekhar Kharadi