...

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तुम बिन हम जियें कैसे....
जहाँ बोली हुई बात को
ना समझ पाती है ये दुनिया,
वहाँ अपने मन की बात
इस दुनिया को हम सामझाएं कैसे...
तुम ही थे, तुम ही हो,
और तुम ही रहोगे मालिक मेरे चमन के,
जो चले गए हो रूठ के हमसे
तो ये बात अपने मन की तुम्हे बतलाएँ कैसे...
गुजरते है जब भी हम उन रास्तों से आज तो,
ढुंढती है ये आँखें तुम्हे जहाँ से हमें निहारती थी तुम,
कभी छेड़ती थी हमें कभी मनाती थी हमें,
जो सुनना चाहें तुम्हारे लबों की हँसी
अपने इन कानों को अब हम बहलाएं कैसे...
जो तेरे चहकने से होता दिन शुरू मेरा,
तेरे चुप्पी से ढ़ल जाती थी जहाँ साँझ हमारी,
बिन तुम्हारे जो साँसे हमारी नही, ये दिल भी अपनी धड़कन भूल जाए,
अब तुम ही बताओ की बिन साँसे और धड़कन अपनी इस जिन्दगी को हम चलाएं कैसे....
जहाँ बोली हुई बात को
ना समझ पाती है ये दुनिया
वहाँ अपने मन की बात
इस दुनिया को हम सामझाएं कैसे_!!
© दीपक