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एतिमाद
एतिमाद

अब वो आलम कहाँ किसी पे एतिमाद किया जाये यारो,
अपने ही लोग बड़ी आसानी से रिश्तो को भूल जाते है।

आज बेटा भी अपने ही बाप को हक़ीर जानता है,
बहु सास को अदालत के कटघरे में खींच ले आती है।

हाकिम लेते है रिश्वत और क़ाज़ी भी यही चाहता है,
बड़े बड़े आलिम भी सिक्को के बोझ से दब जाते है।

है कोई जो वीराने में तेरी पुकार का जवाब देगा तुझे,
अब वो नाखुदा भी नहीं जो साहिल पे पंहुचा देगा तुझे।

अब वो दोस्ती कहाँ, कभी जिसपे भरोसा करते थे " रवि",
आँखे चुरा के हमराज़ भी आसानी से दगा दे जाते है।

राकेश जैकब "रवि"