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मैं भी पैंट पहन सकती हूँ
कितना जरूरी एक महिला का,
आर्थिक रुप से सुदृढ़ हो जाना,
चाहे कोई सी नौकरी करे वो पर,
घर आकर है उसे खाना भी पकाना।
कपड़े गर हों साफ करने तो जरूरी है,
उस स्त्री का उन्हें हाथ लगाना,
घंटों बाद भी जब घर पहुंचे तो,
बच्चों को उन्हें ही है फुसलाना।
रुको। जरा ठहरो। सुनो बात मेरी,
एक पुरुष जब पैसे है कमाता फिर,
घर के कामों क्या जरा वो हाथ बँटाता है,
बताओ ईमानदारी से, ऐसा भी क्या शर्माना?
सुनो अब न ज्यादा तुम्हें मैं घुमाता हूँ,
अब सीधा मुद्दे पर आ जाता हूँ,
आजीवन डर कर, झुक कर जीती है वो,
हर पल इस जहर को चुपचाप पीती है वो।
कल मुझे छोड़ दिया तो क्या करूंगी,
अपने बच्चों का पेट मैं कैसे भरूँगी,
घर परिवार संभालने को छोड़ दिया था सब,
अब कैसे पहले के जैसे मैं फिर नौकरी करूंगी।
बन्द करो ये दोगलापन समाज के ठेकेदारों,
खुद की जो औकात नहीं उसकी उम्मीद लगाते हो,
खुद 2 काम कर नहीं सकते पर स्त्री को,
सारे कामों की जिम्मेदारी थमाते हो।
बातें बहुत सुनी तुम्हारी, अब जरा चुप हो जाओ,
एक दिन तो उसकी तरह जी कर तुम दिखाओ,
वो तो पैंट पहन लेती है, तुम्हें आफिस में बदल देती है,
एक बार तो साड़ी पहनो, चलो बस बिना पल्लू गिराए।
© ✍️शैल
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