...

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आंखें सिसक रही थी दिल बोल रहा था
आंखें सिसक रही थी
दिल बोल रहा था
जरा ठहर जा संदीप
पगडंडी मोड़ आ रहा है।।

किसी का कोई नहीं
इंसान मुखौटा बदल रहा
पानी की तरह एक डंड से
दुर-दुर छिटक रहा है।।

किसी में सहन नहीं
बदले की आग में धधक रहा है
दुनिया को जरा देखो
घर, घर से लड़ रहा है।।

नींबू की तरह एक दूसरे को
एक दुसरा निचोड़ रहा है
सियासत की तरह अब
अपना भी रंग बदल रहा है।।

जो बस में आ जाए
उसका ठीक-ठाक चल रहा है
जो बस में ना आए
उसे जबरदस्ती रगड़ रहा है।।

कल बल छल
आज हर जगह चल रहा है
राजनीति का तो छोड़ो
गिरगिट से ज्यादा इंसान रंग बदल रहा है।।

अपने आप पर कम
दूसरे पर ज्यादा भरोसा कर रहा है
यही विश्वास घात का कारण
आज ज्यादा बढ़ रहा है।।

वहम हद से ज्यादा
दुर्बल कर रहा है
सफल इसी कारण
व्यक्ति आज कम हो रहा है।।

करतल ध्वनि पर नागिन नाच
अपने आप को करा रहा है
दूसरे के इशारे पर
हद से ज्यादा खुद को भाग रहा है।।

अनुराग राग सुना कर
मधुर ज्वान छुरी पीज़ा जा रहा है
कठोर शब्द बोलने वाले
गाय की तरह सेंध खा रहा है।।

एक दूजा एक दूजे कि
फायदा उठा रहा है
हर जगह आज
इंसान छले जा रहा है।।

पास होते हुए भी सब कुछ
बहाना लग रहा है
घोर कलयुग में आ चुके हैं हम लोग
ऐसा यह समय बता रहा है।।

क्युकी कोई किसी के आगोश से
तो कोई किसी के बढ़ते शक्ति से
धू-धू होकर जल रहा है
हां दुनिया घोर संकट की ओर
बड़ी तेजी से बढ़ रहा है।।

और कोई इसका आनंद ले रहा है
तो कोई इसे लड़ रहा है
हां यह सत्य है
दो-चार परसेंट के कारण ही पृथ्वी चल रहा है।।

यह पाबंद समय का
कैसा बदल रहा है
सत्य को झूठ
और झूठ को सत्य बोल रहा है।।

रोज रोज थोड़ा-थोड़ा
किसी को कोई तोड़ रहा है
जोड़ने वाले हैं नहीं
उजाड़ने वाले का शहर बस रहा है।।

अपने आप को चमकाने के लिए दूसरे को कुएं में धकेल रहा है
यही खेल चारों तरफ
बड़े अच्छे से खेल रहा है।।

यह सब देखकर
पर्वत पिघल रहा है
लेकिन कर भी क्या सकता
नियति कहकर सबर कर रहा है।।

संदीप कुमार अररिया बिहार
© Sandeep Kumar