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आंखें
आंखों की भी कहानी अपनी रही।
सबकी आंखों ने हमेशा अपनी कही।
कभी हो जाती हैं किसी से चार।
कभी कनखियों से समझ जाएं किसी के आने की आहट।
कभी ईश्वर के सामने उन्हें अपनी दुआओ से देती बांध।
बच्चे की आंखे ढूंढ़ती मां को।
कभी गैरों में अपनों को ढूंढे आंखें।
कभी जवाब की दरकार धोखेबाजों से।
भेड़ियों सी आंखें रहती स्त्री के शील पर।
इन सबके ऊपर कुछ आंखे ऐसी भी पाईं।
सरहद पे वो निगहबानी करती आयीं।
तन गल जाए या जल जाए
ऐसी आंखे कभी ना धोखा खाएं।
मौत से नज़र मिला के भी
ये आंखें कभी नहीं झुकने पाएं।
समीक्षा द्विवेदी
© शब्दार्थ📝
सबकी आंखों ने हमेशा अपनी कही।
कभी हो जाती हैं किसी से चार।
कभी कनखियों से समझ जाएं किसी के आने की आहट।
कभी ईश्वर के सामने उन्हें अपनी दुआओ से देती बांध।
बच्चे की आंखे ढूंढ़ती मां को।
कभी गैरों में अपनों को ढूंढे आंखें।
कभी जवाब की दरकार धोखेबाजों से।
भेड़ियों सी आंखें रहती स्त्री के शील पर।
इन सबके ऊपर कुछ आंखे ऐसी भी पाईं।
सरहद पे वो निगहबानी करती आयीं।
तन गल जाए या जल जाए
ऐसी आंखे कभी ना धोखा खाएं।
मौत से नज़र मिला के भी
ये आंखें कभी नहीं झुकने पाएं।
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