...

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... और एक दिन...!
... और एक रोज़ यूँही
जेठ की दोपहर में
उपज आए थे तुम मेरे मन की
परती सी जमीन पर...
बहुत ही विपरीत परिस्थितियों में...

जेठ में जबकि...
सृजन नहीं कर रही होती है सृष्टि..

सूर्य विध्वंश करता है बेकार पड़ी... बेकार...
कमजोर चीजों को ...
जेठ... जैसे कि आपकी
आत्मिक व शारीरिक
परीक्षाओं का दौर है...

और उसी परीक्षा के दौर में
न जाने यकब़यक...
कैसे उभर आए तुम...?

मैं हैरान... कि दुनिया भर के मनों में उग आई
नागफ़नी की विरह लिखते-लिखते...
मेरे मन की सख़्त सी ज़मीन पर न जाने...
कैसे उभर आएं तुम...??

पूर्ण पल्लवित... अमलतास …. के वृक्ष जैसे...

जीवन के इस मोड़ से...
जहाँ विपरीत परिस्थितियों में
बन जाया करता है बड़ की दीर्घ जटाओं का
पृथ्वी के दर्द के साथ गहरा संबंध....

यहाँ से "प्रेम के रास्ते,बहुत आसान हो जाते हैं!"