... और एक दिन...!
... और एक रोज़ यूँही
जेठ की दोपहर में
उपज आए थे तुम मेरे मन की
परती सी जमीन पर...
बहुत ही विपरीत परिस्थितियों में...
जेठ में जबकि...
सृजन नहीं कर रही होती है सृष्टि..
सूर्य विध्वंश करता है बेकार पड़ी... बेकार...
कमजोर चीजों को ...
जेठ... जैसे कि आपकी
आत्मिक व शारीरिक
परीक्षाओं का...
जेठ की दोपहर में
उपज आए थे तुम मेरे मन की
परती सी जमीन पर...
बहुत ही विपरीत परिस्थितियों में...
जेठ में जबकि...
सृजन नहीं कर रही होती है सृष्टि..
सूर्य विध्वंश करता है बेकार पड़ी... बेकार...
कमजोर चीजों को ...
जेठ... जैसे कि आपकी
आत्मिक व शारीरिक
परीक्षाओं का...