...

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वो जो प्रेम था..!
कमाल है...
औऱ एक अनवरत सा सवाल भी,

अच्छा.. प्रेम कहाँ तक सत्य है
क्षणिक.. बदलते मौसम की तरह या.. या फिऱ अंतहीन,

अब मैं अपनी बात कहूँ तो
सब एक मिथ्या सा आकर्षण है.. आकर्षण समाप्त तो बस प्रेम भी समाप्त,

मुझसे भी हुआ था..
किसी को मतलबी सा प्रेम हुआ
किसी को मुझमें छुपे कवि से प्रेम हुआ
किसी को मैं अपने पिता की छवी सा लगता था तो.. तो बस हो गया,

समय बिता ... औऱ मैं हर रूप से निकल गया,

हा.. हाहा, अब मैं ना प्रेमी रहा ना प्रिय रहा ना पिता रहा,

अंत में बस इतना ही कहूँगा...
सच आज भी वहीं है
पऱ वो झूठ ना जाने अब कौन सा रूप बदल रहा होगा,

है ना.. तुम अब भी वैसे ही कहती होगी ना किसी से... जैसा मुझसे कहती थी..

"आई लव यू.."

याद है.. या.. यह भी भूल गए!
हा... हा हाहा हा:


© बस_यूँ_ही