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शाम हुई
शाम हुई
शफ़क़ को निहारती यह नयन।
उड़ना चाहती हैं।
तो दूसरी ओर रस्सी से जकड़े,
अपने पंजे को निहारती।
क्या कभी मुमकिन होगा इसको तोड़ना।
जो है यह ना जाने कितनो की सोच की।
वास्तविकता से अनजान,
सुन के ओरो की बोली,
शायद वह चल पड़ी थी उनकी ही टोली।
तभी तो शायद क़ैद थी वो।
ना जाने किसकी डोर से बंधी।
कितना आसान होता है ना,
बेटियो को ऐसे ही कोई डोर से बंधना।
तुम पराया धन हो,
यह बात हर बार जताना।
दाना पानी का प्रबंध तो तुमारा शायद कही और ही है।
और चाहे वो क़ैद ही हो अपनी सिसकियों मे,
क्या ही फ़र्क़, पड़ता है।
खैर बात तो यहाँ उस चिड़िया की हो रही है,
जो शायद अब की क़ैद है।
© Priya kumari
शफ़क़ को निहारती यह नयन।
उड़ना चाहती हैं।
तो दूसरी ओर रस्सी से जकड़े,
अपने पंजे को निहारती।
क्या कभी मुमकिन होगा इसको तोड़ना।
जो है यह ना जाने कितनो की सोच की।
वास्तविकता से अनजान,
सुन के ओरो की बोली,
शायद वह चल पड़ी थी उनकी ही टोली।
तभी तो शायद क़ैद थी वो।
ना जाने किसकी डोर से बंधी।
कितना आसान होता है ना,
बेटियो को ऐसे ही कोई डोर से बंधना।
तुम पराया धन हो,
यह बात हर बार जताना।
दाना पानी का प्रबंध तो तुमारा शायद कही और ही है।
और चाहे वो क़ैद ही हो अपनी सिसकियों मे,
क्या ही फ़र्क़, पड़ता है।
खैर बात तो यहाँ उस चिड़िया की हो रही है,
जो शायद अब की क़ैद है।
© Priya kumari
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