...

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" प्रेम रस प्याला "
नवपल्लव की करता हूं मैं
अस्वादन उस मधुर प्रेम परागण की
जो मेरे उर में उमड़ता है चिर सागर,
प्रेम की निश्छल छवि नेत्रों में अंकित है
मेरे मन के अंतर्मन में रचता बसता है
वो लुभावने प्रतिबिंब अप्रतीम
शशि मुख मंडल,
बहती है उसके अलकों से
रजत प्रेम फुहारें, सराबोर हुआ मैं,
अंग अंग पुलकित होते हैं
जैसे प्रभा की रक्त रश्मि में।
मेरे सम्पूर्ण रूप में विरचित हो
तेरे सिवा और न कोई दूजा है,
प्रेम रस प्याला का चिरपान किया
तुम मेरे ध्यान में हो,
मेरे योग में हो, मैं साधक,
तुम साधना का अविचलित सन्मार्ग।
ये वो प्याला है, वो मादकता है,
ये वो दाक्षारस नहीं है
जो मनसपटल को विकृत रूप दे,
वरन् आत्मविश्वास, ऊर्जा से तृप्त करे,
बिन होंठ लगाए ये तो बस चढ़ता जाए।
हां मैंने पिया है प्रेमरस प्याला रे
हुआ मैं प्रेम मतवाला रे
सुधबुध तनमन की भूला रे
आत्मिक रस प्याला रे।



'Gautam Hritu'




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