...

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राज़ ए मोहब्बत
उसके सात होकर भी अजनबी सा लगता है
दरिया पास होकर भी तिश्नगी सा लगता है।

लम्हा लम्हा गुज़र जाता है तसव्वुर में जिनके
रु ब रू होकर भी एक उदासी सा लगता है।

इब्तिदा ए इश्क की वो मेरी मासूमियत लौटा दो
छोटी सी उम्र में ये चेहरा न बूढ़ा न जवानी सा लगता है।

सर ए आम किया करो हमारी मोहब्बत का ज़िक्र
ये राज़ ए मोहब्बत में मन दिवानगी सा लगता है।

न कुछ खोने का डर न कुछ पाने की हसरत है
फिर भी तेरे हर लफ्ज़ एक सफ़ाई सा लगता है।