...

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वक़्त की रफ़्तार........
कहाँ विद्यालय का पहला दिन,
कहाँ मेरी पड़ाई ख़तम भी जो गई,
पता ही नहीं चला,
कहाँ खाना खाने पर नाटक करते थे,
अब खुद खाना बनाने के काबिल हो गए,
पता ही नहीं चला,
कहाँ इस्त्री को हाथ में नही लिया करते थे,
अब खुद के ही कपड़े इस्त्री करते है,
पता ही नहीं चला,
कहाँ अकेले बहार जाने से डरते थे,
अब अकेले सफ़र तक तय कर सकते,
पता ही नहीं चला,
जिन्होंने हमें उंगली पकड़ कर चलना सिखाया,
आज उनके ही कंधे- से- कंधा मिला दिया,
पता ही नहीं चला,
जिनका बचपन में हाथ पकड़ कर सैर किया करते थे,
आज उन्हीं का सहारा बन गए,
पता ही नहीं चला,
कहाँ दोस्तों के साथ साइकल चलाया करते थे,
कहाँ अपने पैरों पर भी खड़े हो गए,
पता ही नहीं चला,
कहाँ गाना गाने सही से नहीं आता था,
अब खुद इंटरनेट पर गायक की तरह गाने लगे,
पता ही नहीं चला,
कहाँ नाचने का हुनर नहीं था,
अब लोग हमसे कहते है की हमें डांस सिखाओ,
कहाँ किताबे पड़ा करता थे,
अब कहाँ लेखक बन गए,
पता ही नही चला,
ये वक़्त कैसे गुज़र गया ,
पता ही नहीं चला........

© Glory of Epistle