...

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मुझको
अजीब महफ़िल है सता रही मुझको,
बात बस हिज्र की बता रही मुझको।
वो बात करके अजीब लहजे से,
हश्र इश्क का समझा रही मुझको।
साथ में गुजारी थी एक उम्र हमने,
मुझे बताओ कैसे भुला रही मुझको।
जाते - जाते ये क्या जादू कर दिया,
अब नींद भी न सुला रही मुझको।
सांसे और तपने लगी थी मिलकर,
चिंगारी होकर भी बुझा रही मुझको,
अभी जाने दो कभी और मिलूंगा,
मेरी जिंदगी अब बुला रही मुझको।
खुश ही तो हूं जो उलझा हुआ हूं,
पूछकर हाल क्यूं सुलझा रही मुझको।
तमाम रातें गुजारी तेरे तसव्वुर में,
ये रात क्यूं तरसा रही मुझको।
ढोलकें बज रही थीं उसके आंगन में ,
ये कैसी खुशियां जो रुला रही मुझको।

© विशाल कश्यप