...

23 views

sapna
आज देखा मैनें एक सपना।
ऐसा लगा कोईं नहीं हैं अपना।।

पहले लगा बहुत डर सा।
क्योकि कुछ भी नही था घर सा।।

ना था कोई अपना, ना थी कोई पहचान।
सब थे वहां, पर..... अनजान!!

ना मम्मा थी, ना पापा थे ना था भाई।
याद आ रही थी वो प्यारी प्यारी लडाई।।

अगले दिन थी दिवाली ,वो भी पूरी खाली।
ना थे पटाखे ना थी मिठाई।।

पर बीतने लगे दिन, बढता गया सपना।
जंहा थे सब अनजान, अब होने लगा अपना।।

सब संभालना सिखने लगी।
अब ऐसे ही जिंदगी कटने लगी।।

सब कुछ था ठीक, पर एक बात की थी कमीं।
नही था यहां मम्मी के हाथ का खाना यम्मी।।

ना था यहां आलू पूरी और ना था राजमा।
मिलता था बस सतुंला और डालमा।।

एक चिज और मिली ,जो नहीं था मेरा हिस्सा।
हर छोटी बातों पर गुस्सा।।

जब कभी नहीं हुआ बर्दाश्त, मम्मी को फोन लगाया।
सब कुछ बोला, तब जाके कहीं सकुन आया।।

मम्मी ने बताया, सब समझाया।
हर परिस्थिति में ढ़लना सिखाया।।

अब सपना अच्छा लगने लगा।
सब अपना लगने लगा।।

नहीं रही अब अनजान।
बन्ने लगी मेरी पहचान।।

अब खुद को सम्भाल लिया है।
हर परिस्थिति में ढ़ाल लिया है।।

परंतु कविता अभी बाकी है।
क्योकि सपना काफी है।।

To be continued.......