...

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कोशिश ज़िन्दगी की..
ऐ मरहूम ज़िन्दगी!,
तूं किस गफलत में पड़ी है।
सागर की गहराई को,
लहरों से नापने चली है।।
अगर चुप हूं तो,
इसे मेरी खामोशी मत समझना,,
मुझे तो अभी किनारे की पड़ी है।।
लाख कोशिश कर ले तूं,
मेरे कदम डगमगाने की,,
मुझे तो बस अपने रहनुमे की पड़ी है।।
तूं रहम कर या ना कर इस जहां पर,
आगे ही तो मेरी मंज़िल खड़ी है।।
तुझे लगता है तेरी नफरत की आग से,
मैं डर जाऊंगा,,
मुझे तो बस उनकी सलामती की पड़ी है।।
अगर तूं सोचती है कि,
हवा के झोकों से ये तिनका बिखर जाएगा!,
शायद तुझे मालूम नहीं,,
मुझे तो बस उनके मुस्कुराहट की पड़ी है।।
समेट लूं अपने ख्वाबों को,
या सिमट जाऊं बादलों की तरह,,
लगता है कमबख्त इसी ज़िद पे तूं अड़ी है।।
written by (संतोष वर्मा)
आजमगढ़ वाले..खुद की ज़ुबानी।।