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ग़ज़ल

राधा राणा की कलम से ✍️
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टूट कर शीशा बिखर यह जाएगा।
टुकड़ों में होकर किधर यह जाएगा।

आज रोज़ी को गया है आदमी,
गांव सारा,कल शहर यह जाएगा।

इश्क़ है यह बेवफ़ा औ बेरहम,
कितनी भी कर लो क़दर यह जाएगा।

रास्ते तन्हा नहीं मिलते हमें,
आदमी कब अपने घर यह जाएगा।

छोड़िए, शिकवे शिक़ायत क्या करें,
वक्त अपना खुद सुधर यह जाएगा।
2122 2122 212