...

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"दुनिया की आखिरी शाम"
दुनिया की आखिरी शाम देखने के लिए, मैं जीवित रहूंगी....

अधूरे सपनों की परछाई में,
असहाय होते हौंसले देखने के लिए।

वक्त की करवट में लिपटी,
लकीरों के मायने ढूंढने के लिए।

सत्य से सुन्दर या झूठ-सा कुरूप,
चेहरा पाने के लिए।

मैं-तुम के भेद को भेदती,
समझ के स्पष्टीकरण का सार समझने के लिए।

जाति से पूर्ण और धर्मांध,
विनाशक विष पीने के लिए।

ममता के जन्म की किलकारियों,
से प्रफुल्लित होने के लिए।

सम्पूर्ण को त्याग,
अधूरेपन से सम्पन्न जीवन फिर से जीने के लिए।

मैं जीवित रहूंगी.....!

© प्रज्ञा वाणी