मज़हब की आड़
मज़हब की आड़ में तू,
दुश्मन बना इंसान का,
जिस रंग पे गुमान तुझे
कपड़ा है वो किसी थान का,
तलवार की प्रचण्ड धार
जो चला रहा गले पे तू,
अधिकार मान रहा जिसे
कलंक वो तेरी शान का।
मज़हब की आड़ में तू, दुश्मन बना इंसान का
ना सूरज की रोशनी सफल,
ना शर्म तुझे देती घटा,
हर रात की सुबह...
दुश्मन बना इंसान का,
जिस रंग पे गुमान तुझे
कपड़ा है वो किसी थान का,
तलवार की प्रचण्ड धार
जो चला रहा गले पे तू,
अधिकार मान रहा जिसे
कलंक वो तेरी शान का।
मज़हब की आड़ में तू, दुश्मन बना इंसान का
ना सूरज की रोशनी सफल,
ना शर्म तुझे देती घटा,
हर रात की सुबह...