तुम्हें लिखना...
सोचती थी,
तुम्हारे लिए लिखना
ज्यादा मुश्किल है
तुम्हें लिखने से...
सोचती थी,
तुम्हें जानती हूं पूरी तरह
तुम्हें पहचानती हूं तुमसे ज्यादा..
झांक सकती हूं तुम्हारे भीतर
खुद को ढूंढने की कोशिश में,
धुरी हो तुम मेरे जीवन की,
मैं धरती सी घूम सकती हूं
अनवरत, इसके इर्द गिर्द..
जब पहली बार लिखा तुम्हारे लिए,
तो शायद पहुंचा नहीं पाई मैं
खुद को शब्दों में बांधकर
तुम्हारे जेहन तक,
या तुम उन शब्दों की परतें खोलकर
देख नहीं पाए मेरा वजूद..
जो भी हो,
बस, तुम्हारे लिए लिखना
सार्थक नहीं हुआ..
तुम्हें लिखना तो बस ऐसा था,
जैसे मैं अपने मन की आंखों से
देखकर उतारती जा रही हूं तुम्हें
ज़िंदगी के कागज पर..
लेकिन, धीरे-धीरे पाया मैंने कि
तुम्हें लिखना भी
उतना ही मुश्किल...
तुम्हारे लिए लिखना
ज्यादा मुश्किल है
तुम्हें लिखने से...
सोचती थी,
तुम्हें जानती हूं पूरी तरह
तुम्हें पहचानती हूं तुमसे ज्यादा..
झांक सकती हूं तुम्हारे भीतर
खुद को ढूंढने की कोशिश में,
धुरी हो तुम मेरे जीवन की,
मैं धरती सी घूम सकती हूं
अनवरत, इसके इर्द गिर्द..
जब पहली बार लिखा तुम्हारे लिए,
तो शायद पहुंचा नहीं पाई मैं
खुद को शब्दों में बांधकर
तुम्हारे जेहन तक,
या तुम उन शब्दों की परतें खोलकर
देख नहीं पाए मेरा वजूद..
जो भी हो,
बस, तुम्हारे लिए लिखना
सार्थक नहीं हुआ..
तुम्हें लिखना तो बस ऐसा था,
जैसे मैं अपने मन की आंखों से
देखकर उतारती जा रही हूं तुम्हें
ज़िंदगी के कागज पर..
लेकिन, धीरे-धीरे पाया मैंने कि
तुम्हें लिखना भी
उतना ही मुश्किल...