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प्रताप प्रतिज्ञा

#प्रताप_प्रतिज्ञा

प्राचीन कालिक चित्तौड़ नगरी,
स्त्रियों से अधिक सुन्दर जो थी।
नुपुरों की उठी झंकारों से,
जो मधुर मनोहर रहती थी।।

वह पावन जन्म भूमि मेरी,
जो मेघ वस्त्र से घिरी हुई।
अत्यन्त मनोहर सस्य दलों से,
इच्छाओं से भरी हुई।।

वह आज सेवकों से विहीन,
असमर्थ और वह दीन हीन।
निर्दोषों के रक्त से सनी हुई,
कुछ मृत कुछ जीवित पड़ी हुई।।

दुःख के अथाह सागर जैसी,
फूटे किस्मत के फल जैसी।
जब भी स्मृति में आती है,
शोकाकुल मन कर जाती है।।

उसको स्वच्छंद करुंगा मैं,
हर दिक आनन्द धरुंगा मैं।
चित्तौड़ दुर्ग ले लुंगा मैं,
मुगलों को मृत्यु दुंगा मैं।।

जब तक न लेता भू का कण,
दे लेता न जन अभय शरण।
तब तक वसुधा होगी पलंग,
न भोग वस्तु बस शस्त्र संग।।

बस होता वेश जियुंगा मैं,
मुगलों का हवन करुंगा मैं।

चाहे दे प्रकाश चंद्र दिन में,
पश्चिम में लगे सूर्य उगने।
जीवन ही चाहे रुठेगी,
यह प्रण न मेरी टूटेगी।।

© #अरुण_कुमार_शुक्ल

शत् शत् नमन मां भारती के वीर सपूत को 🙏🙏🙏