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ग़ज़ल-253/2022
सबको जब सर्दी लगती है
साहब को गर्मी लगती है

कानों में अब मिसरी डालो
सच से गर मिर्ची लगती है

ज़हर तो अब लगता है मीठा
दवा ही अब कड़वी लगती है

रूप बदल जाता है उसका
जो मुझको अच्छी लगती है

जिनके ख्वाबों में हों उजाले
शब उनको फ़ीकी लगती है

अक्सर मिलकर सागर से क्यों
हर इक नदी प्यासी लगती है

जिनके हिस्से में हैं अँधेरे
रात उनको लम्बी लगती है
चाँद मयस्सर हुआ है जिनको
उनको शब छोटी लगती है

रूह से निकले जो शायर के
वही ग़ज़ल सच्ची लगती है
ठोक पीटकर बनती है जो
वो बिल्कुल झूठी लगती है

पीली साड़ी में अक्सर ही
तू मुझको तितली लगती है
जादू से डर लगता है और
नज़र तेरी जादुई लगती है

मुझको रात अक्सर वादी की
कोई ज़ुल्फ़ खुली लगती है

महल तो हैं वीरान सदा से
बस्ती और घनी लगती है

सब कुछ हासिल हुआ मगर क्यों
फिर भी कोई कमी लगती है

अजब है ये भी साथ भी है तू
और कमी तेरी लगती है

ज़ीस्त ख़फ़ा थी पहले से ही
मौत भी अब रूठी लगती है
धमकी अब "नाकाम" क़ज़ा की
मुझको नौटंकी लगती है