...

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अनकही दास्तां ...
बयां करना सिख ही चुके थे अपने जज्बातों को
कुछ अल्फाज़ो में इन कागजों पर उताना,
खुद्दार कहवाओ के झोके कुछ इस कदर आये हैं
कि अच्छे तो बहुत है लेकिन दिल से ना तो खुश और ना ही हम रो पाये हैं,


खुशियों से भरा है दिन रातें भी कमाल की है
लेकिन क्या दिल से मैं खुश हूं ऐसे कई सवाल भी है,
डर है किसी के खोने का और किसी से जुड़ने का भी
सब कुछ अच्छा हो जाये जिंदगी में ऐसी भी आसायें हैं,

कौन खुश है मेरे साथ कौन नहीं
इस बात का राहत और अफसोस है मन में,
कोशिश और चाहत यही है माफ़ कर दे हमें वो सब
जिन्होंने मेरी वजह से चोट खाई हैं ,

बदल चुके हैं हम बहुत बस थोड़ा
और बदलना बाकी है,
संभल गये हम बस थोड़ा
और संभलना बाकी है ।






© Siya