...

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ख़ामोशी
कोई जानता ही नहीं दिल की उम्मीदों को यहां।
मिलती है जमीं किसे? किसे मिल सका है यहां आसमां?
हम बेफिक्र होकर धुएं को ही महबूब बताते चले।
जहन में ढूंढते है ख़ुद को और ज़माने को भुलाते चलें।।
रेत बन कर ज़िन्दगी की ख्वाहिश की कहां रही तलब।
ख़ुद को जो ढूंढने चला ख़ुद ही से मिल पाता ख़ुदा कब?
देख कर मेरी मशरूफ मिजाज़ हैरान है ख़ुद ही से सभी।
कभी ढूंढ कर लाया तुझे कभी ज़िंदादिल ख़ुद को मिलता ही नहीं।
जो नज़्म लिख कर है रोशन तू आफताब सा ख़ुदा।
मुझमें मैं ख़ामोश रहा। ख़ुद से ही रहता हूं हो कर जुदा।।
© ज़िंदादिल संदीप