...

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आख़िर क्यों सीमित हो जीता है इंसान...
ये कैसा बन्धन या समजिकता है
ना समझ पाता हूं कभी...
कि सीमित कर दिए जातें है हर जज़्बात
दबा दिए जाते हैं मन में उठते हर उन्माद...

क्यों होता है ऐसा..
कि सब कुछ अच्छा मस्त होते हुऐ भी
क्यों अच्छे लगने लग जातें है किसी दूजे के ख्यालात...

या यदा कदा मिल जाए
कोई समान ख्यालात वाला
तो बढ़ जाती है कोई श्रद्धा आगे
तो फिर 35 टुकड़ों में बिखरी वो क्यों मिलती है..

शायद ये एकल परिवारों की त्रासदी है.. जहां मां बाप होते हैं केवल..
ना शेयर कर पाते हैं बच्चे हर जज़्बात
कुछ इस डर से की क्या सोचेंगे वो उनके बारे में
कुछ इसलिए की उनकी गलती बता उनको ही समझा दिया जायेगा...
© दी कु पा