...

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श्रृंगार
श्रृंगार...
चंद अल्फ़ाज़ लिखना आसान है शायद !
कहने को तो यह स्त्री का अलंकार है,
और यही खिंची गयी
कुछ रिवायतों की लकीर है शायद !

मुमकिन है तोड़ना ...
हाँ, मुमकिन है तोड़ना ...
परम्पराओं के नाम पर
झूठी रस्मों को !

लेकिन, ललाट पर टीका ... याद दिलाये
साँसों से जुड़ी उन सारी कसमों को !
चमकती नथ अश़्कों को पी जाती है,
और हर हाल जैसे हँसना सिखाती है !

कानों के झुमके ... तिरस्कृत शब्दों को
मन में निःशब्द समाना सिखाती है !
गले का हार ...समर्पण का है प्रतीक,
कभी कभी झुँक जाना भी लगे ठीक !

कह जाते है हाथों का कंगन ...
हम से है जुड़े कितने फ़र्ज़ों का बंधन !
पायल छनकती है ... रुक जाते है क़दम,
मर्यादाओं की दहलीज़ पर सिर्फ़ है खड़े हम !

मन में कई सवाल, बग़ावत का सैलाब,
बस, क़ैद रह जाते है रिश्तों की चारदीवारी पर हम !
और ये उम्र बीत ही जाती है
हँसते हुए पूरे - अधूरे ख़्वाबों के साथ ...!

और वह "मुस्कान"...
शायद, ग़ुम हो जाती है श्रृंगार के बीच, यहीं कहीं!
एक स्त्री आख़िरी मुस्कान कब मुस्कुराती है ?
बाबुल के आँगन में या ....