...

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नारी कहाँ हो तुम?
नारी कहाँ हो तुम ?
चर्या में खोई सी,
पगली सी रोई सी,
कहाँ हो तुम?
नए रिश्तों के जुड़ने से लेकर,
सबके मन को जीतने तक,
अपना सर्वस्व वारती सी,
कहाँ हो तुम ?
रिश्तों की दहलीज़ पर तने,
रिश्तों के परदे के पीछे से
खुद को छिप छिप कर निहारती सी
कहाँ हो तुम?
घर संसार की जिम्मेदारियों तले,
कुशल गृहणी कहलाने की होड़ तक,
खुद को कहीं दूर से पुकारती सी,
कहाँ हो तुम?
सुबह की पहली चाय से लेकर,
रात के बुझे चूल्हे की राख तक,
परिजनों के संतुष्ट चेहरे निहारती सी,
कहाँ हो तुम?

हाँ ! मैं यहीं हूँ, यहीं कहीं हूँl
और कोशिश कर रही हूँ,
खुद से प्यार करने की,
रिश्तों के पहरोंं से छिपकर,
खुद से आँखें चार करने की,
वजूद के आइने पर से
ज़िम्मेदारियों की तहें साफ कर,
थोड़ा खुद से दुलार करने की,
छोटी सी कोशिश कर रही हूँ मैं,
खुद को पाकर,
खुद से ही प्रणय संवाद करने की,
खुद से प्यार करने की,
खुद पर खुद को वारने की,
खुद को निहारने की,
एक नाकाम कोशिश कर रही हूँ मैं,
सच में कोशिश कर रही हूँ मैं l

मौलिक व स्वरचित रचना ✍️🙏
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