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ये_उम्र_ग़मकदों_में_उलझ_रही_है
कच्ची पक्की उम्र किन चाहतों में उलझ रही है
ये ज़िंदगी किन किन हिजरतों में उलझ रही है
आज - कल ना पाक मनसूबों को बुनने लगें है
सुना है ये ज़िंदगी झूठी हसरतों में उलझ रही है

महखानों की चोखट पे आने वाला कल खो गया
ये ज़िंदगी अब से सिर्फ ज़मानतों में उलझ रही है
भविष्य के चिंतन मंतन का ज़िक्र कहीं खो गया
ये उम्र ना जाने कौन से ग़म-कदों में उलझ रही है

दिखावी रंग मंचों का चढ़ता हुआ ये कैसा खुमार
ये युवा पीढ़ी कौन सी तन्हाइयों में उलझ रही है
इक ज़िंदगी आहिस्ता-आहिस्ता खत्म होने लगी
ये उम्र मोहब्बत के झूठे सौदागरों में उलझ रही है

ज़िम्मेदारियों की जंजीरें यूं ही नहीं आज टूट गई
ये नादानियों की उम्र भी पेशानियों में उलझ रही है
सुना है इसकी - उसकी बातें बहुत कहर ढाती है
सब के सामने ये मन अदाकारियों में उलझ रही है

लोग चेहरे के कुछ निगाहों में कुछ और रखने लगें है
आखिर क्यों ये ज़िंदगी इतनी उल्फ़तों में उलझ रही है
तमाम सवालों में बस शिकायतें दर्ज होने लगी यहां
वक़्त के साथ-साथ ये उम्र नफ़रतों में उलझ रही है

© Ritu Yadav
@My_Word_My_Quotes