यादों का दरख़्त
तुम कुछ बो कर भूल गई,
मगर ना वक्त भुला, और ना मैं;
कुछ ही दिनों में कुछ पत्ते निकल आए;
शायद जी रहा था किसी कोने में; मेरे ही अंदर
शायद रोज़ सींचता था जाने अंजाने में;...
मगर ना वक्त भुला, और ना मैं;
कुछ ही दिनों में कुछ पत्ते निकल आए;
शायद जी रहा था किसी कोने में; मेरे ही अंदर
शायद रोज़ सींचता था जाने अंजाने में;...