...

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बचपन
वो कागज़ की कश्ती, वो बचपन की मस्ती वो सैर-सपाटा गलियों में
आज भी जब याद आती है, मन घूम ही आता है गुप-चुप गाँव की गलियों में

वो नादानियां, वो शैतानिया, वो मनमर्ज़िया बचपन की
ढूंढ़ने से भी कहाँ मिलती है, इन बड़े शहरों की बड़ी गलियों में

छोड़ बिखरी किताबें, वो जूते-ज़ुराबें, कपड़ो की अस्त-व्यस्तता
रोके न रुकते दौड़ ही पड़ते दोस्तों संग खेलने गाँव की गलियों में

ना महल था घर हमारा, ना ज़ेब से अमीरी ढुलती थी
फिर भी बचपन शान से गुज़रा "हमारा", हमारे गाँव की गलियों में

© shobha panchariya
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