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लफ़्ज़ों का मरहम

♥️
दोस्त-ओ-एहबाब, रिश्तेदार, मेरे घर वाले,
कोई पुरानी अपनों की आदत नहीं लाता
देखो तो ज़रा_ मैं मरीज़-ए-इश्क़ हूँ लोगो!
कोई भी मेरी ग़र्ज़-ए-अयादत नहीं आता

मेरे जो ज़ख़्म हैं देखा है कभी, हाँ_हाँ...वही
जिन्हें अपनों ने आजकल नासूर बना रखा है
मरहम-ए-अल्फ़ाज़ बख़्शता हूँ खुद ही ख़ुद,
कोई दिखावे को भी अब रफ़ाक़त...