" दर्द पर बारिश की बूंदें "
हो जाता दर्द सहना जब इतना मुश्किल;
कि वो बयां शब्दों से कुछ ना करती है,
और बेबसी, रुसवाई.... तन्हाई बनकर;
जब पल-पल नागिन सी उसको डसती है,
लेती सांसे धड़कन से यूँ तो;
पर जब थोड़ा-थोड़ा हर दिन मरती है,
कभी छुपाती आंसू लोचन में;
तो कभी अधरों से झूठी मुस्कान वो हसती है,
तब दर्द पर बारिश की बूंदें;
राहत जैसी उसको लगती हैं.....
बच नजरों से दुनिया की दीवारों में चार;
जब मद्धम-मद्धम सांसे तन्हा हो सिसकती हैं,
और बरसों पले हर अरमान को उसके;
किस्मत जब कतरा-कतरा कर कतरती है,
उधेड़बुन कड़वी यादों की निरंतर;
मन-मस्तिष्क में जब उसके चलती है,
और सब कुछ परिश्रम से पा क्षण-भर में खोकर;
जिंदगी जब पल-भर में जा बिखरती है,
तब दर्द पर बारिश की बूंदे;
राहत जैसी उसको लगती हैं.....
मानो एहसास-ए-सुकूँ उसे करवाने;
ही वो अंबर से आ उतरती हैं,
और हर एक बूंद बारिश की जख्मों पर उसके;
मलहम सी जा ठहरती है,
लगती घुलती-पिघलती सी;
हर एक बूंद संग हर एक टीस मन की,
और आहिस्ता-आहिस्ता जब एक-एक बूंद;
तन से उसके शबनम सी जा फिसलती है,
तब दर्द पर बारिश की बूंदे;
राहत जैसी उसको लगती हैं.....
हर एक अश्रु समाहित स्वयं में कर;
जब बन निर्झर वो उसमें बहती है,
ना कर क्षीण खुद को तू इनसे...
अस्तित्व इनका कुछ क्षण का;
मानो हर बूंद उससे कहती है,
जैसे लौटने पर इन बारिश की बूंदों के;
बहती स्वच्छ हवाएं व इंद्रधनुषी धूप खिलती है,
वैसे ही भीगकर इन बारिश की बूंदों में;
हर दर्द अपना उसको एक बीता हुआ कल लगती है,
क्योंकि दर्द पर बारिश की बूंदे;
राहत जैसी उसको लगती हैं !
© Shalini Mathur
कि वो बयां शब्दों से कुछ ना करती है,
और बेबसी, रुसवाई.... तन्हाई बनकर;
जब पल-पल नागिन सी उसको डसती है,
लेती सांसे धड़कन से यूँ तो;
पर जब थोड़ा-थोड़ा हर दिन मरती है,
कभी छुपाती आंसू लोचन में;
तो कभी अधरों से झूठी मुस्कान वो हसती है,
तब दर्द पर बारिश की बूंदें;
राहत जैसी उसको लगती हैं.....
बच नजरों से दुनिया की दीवारों में चार;
जब मद्धम-मद्धम सांसे तन्हा हो सिसकती हैं,
और बरसों पले हर अरमान को उसके;
किस्मत जब कतरा-कतरा कर कतरती है,
उधेड़बुन कड़वी यादों की निरंतर;
मन-मस्तिष्क में जब उसके चलती है,
और सब कुछ परिश्रम से पा क्षण-भर में खोकर;
जिंदगी जब पल-भर में जा बिखरती है,
तब दर्द पर बारिश की बूंदे;
राहत जैसी उसको लगती हैं.....
मानो एहसास-ए-सुकूँ उसे करवाने;
ही वो अंबर से आ उतरती हैं,
और हर एक बूंद बारिश की जख्मों पर उसके;
मलहम सी जा ठहरती है,
लगती घुलती-पिघलती सी;
हर एक बूंद संग हर एक टीस मन की,
और आहिस्ता-आहिस्ता जब एक-एक बूंद;
तन से उसके शबनम सी जा फिसलती है,
तब दर्द पर बारिश की बूंदे;
राहत जैसी उसको लगती हैं.....
हर एक अश्रु समाहित स्वयं में कर;
जब बन निर्झर वो उसमें बहती है,
ना कर क्षीण खुद को तू इनसे...
अस्तित्व इनका कुछ क्षण का;
मानो हर बूंद उससे कहती है,
जैसे लौटने पर इन बारिश की बूंदों के;
बहती स्वच्छ हवाएं व इंद्रधनुषी धूप खिलती है,
वैसे ही भीगकर इन बारिश की बूंदों में;
हर दर्द अपना उसको एक बीता हुआ कल लगती है,
क्योंकि दर्द पर बारिश की बूंदे;
राहत जैसी उसको लगती हैं !
© Shalini Mathur