...

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आगे क्या होगा
जो राख हो गया है, वो और क्या जलेगा,
जो ख़ाक बन गया है, वो और क्या मिलेगा.

वो भी कभी था पानी, तिल-तिल तरावटों का,
अब भाप बन गया जो, वो और क्या उड़ेगा.

जब तक रगों में था, तो हर बूंद में अज़ीज़,
जब बह गया ज़मीं पे, तो और क्या बहेगा.

जो महक आई सबा में, गुंचे से खिल उठे,
बढ़ा किसी सम्त में, भंवरा वो क्या मिलेगा.

वो मस्तूल मुड़ रहे हैं, हवा के थपेड़ों से,
साहिल पता न जिसको, बेड़ा वो क्या चलेगा.
© अंकित प्रियदर्शी 'ज़र्फ़'

सबा - सुबह की धीमी हवा (morning breeze)
गुंचे - कलियां (flower buds)
सम्त - दिशा (direction)
मस्तूल - पानी के जहाज़ की पाल (mast of a ship)
अर्ज़ किया है.....
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