...

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किताबें कहती हमसे
किताबें कहती हमसे,
कभी आना उसके घराने
धूल को छाँटकर
आज़ादी का जशन मनाने|

बंद अलमारी में पड़ी हैं
पर आज भी इसी आस पर अड़ी हैं
कोई आकर उन्हें ले जाए
पन्ने पलटकर कुछ अल्फ़ाज़ पढ़ जाए|

यूँ गोद में उन्हें लेकर स्नेह जताना
थूक से सफ्हा पलटना
कहाँ गई वो भावनाएँ
यह बात किताबों को रोज़ सताए|

वो महके हुए रूक्के, प्यार भरे खत
अब किताबों में समाते नहीं
इसीलिए वे कहती
हमारा राबता खो गया कही|

जो शामें उनकी सोहबत में कटती
वो रातें जहाँ किताबें सिरहाने होती
वो अब नहीं रही
यही दूरी आज किताबें झेल रही|

यूँ तो किताबें बहुत कुछ हैं कहती
वह रूतबा पाने हेतु रोज़ तड़पती
पर ये मन की आँखे हैं कि
उनकी रूह को नहीं समझती|

~G. Neha#drmr