...

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रूठ गई है
हैं जिनके पास मां के ममत्व की कोमल छाया
इस भयामः वन रूपी दुनियां में
वे किसी सिंह की भांति ही फिरते हैं
होता प्रतीत कुछ एसा मानो
है जाने कितनी असीम शक्ति उस आंचल तले
की सब विपदाये स्वयं ही घुटने टिकते है
पर ना पूछो व्यथा उन अभागों की
सब मिला जिन्हे
पर इक वो आंचल ही न नसीब हुआ
दुनियां में सबसे ज्यादा बस एक वो ही गरीब हुआ
कभी किसी की चाशनी भरी बातों को
कभी फरेबी मुस्कुराहटों को
मामी, चाची, बुआ, काकी
कभी जीवन में पाया जो साथी
सास, ननद और भी रिश्ते थे जो बाकी
सब में तलाशा बस मां के ममत्व की वो झांकी
पर हाथ रहे फिर भी यूं ही खाली
जैसे मनाता कोई बिन दियों की दिवाली
इस दुनियां रूपी भयामह वन में
लोमड़ी, भेड़िया बने बैठे सब मनुष्य तन में
ममता की छाया के अभाव में
सिंहनी भी गरजना भूल गईं हैं
रूठे संसार सारा है नहीं ये कोई बात बड़ी
पर किस्मत इतनी है फूटी
मां ही रूठ गई है
मां ही रूठ गई है
अंजली